कोरोना काल में भारत में संक्रमित मीडिया का असली इलाज करेगा कौन?

आजकल अख़बार कोविड-19 महामारी की ख़बरों से पटे पड़े हैं। तथ्यपरक समाचारों के साथ ही बहुत सी मार्मिक ख़बरें रोज़ छप रही हैं। टीवी न्यूज़ चैनलों पर भी कोविड का क़हर ही छाया हुआ है। ख़बरें देख-सुन और पढ़ कर जब लगता है कि देश का हर आदमी लाचार है, सरकारें कुछ नहीं कर पा रहीं, विपक्ष नकारात्मक राजनीति में लगा है, लोग सिर्फ़ कोविड से जुड़ी कालाबाज़ारी में ही जुटे हैं, तो किसी का भी मन उदास होना लाज़िमी है।

लेकिन जब एहसास होता है कि केंद्र और राज्य सरकारें हरसंभव मदद में जुटी हैं, डॉक्टर और अस्पतालों के दूसरे स्टाफ़ दिन-रात काम में लगे हैं, आम लोग अपरिचितों की हर तरह की सेवा में लगे हैं, तो मन में रौशनी की कुछ किरणें फूटती हैं कि इंसानियत ही आख़िरी तौर पर हमेशा ज़िंदा रहेगी। भले ही कितनी भी क़ीमत क्यों न चुकानी पड़े…

बहरहाल, एक ही दिन के एक ही अख़बार में जब दो ख़बरें प्रमुखता से प्रकाशित की गई हों, तो भ्रम की स्थिति सहज ही बन जाती है।

– हाल ही में हिंदी के एक राष्ट्रीय समाचार पत्र के ग़ाज़ियाबाद संस्करण में पहले पन्ने पर पहली लीड थी-
– कोरोना के सक्रिय मामलों में 56% की कमी
–  यूपी में संक्रमण दर देश भर में सबसे कम

जानलेवा ख़तरनाक कोरोना काल में ख़बर का शीर्षक सुकून भरा लगा, क्योंकि नकारात्मक समाचार पढ़ते-पढ़ते अब उबकाई सी आने लगी है।
लेकिन उसी अख़बार के उसी अंक में किसी और पन्ने पर प्रमुखता से प्रकाशित जब ये ख़बर पढ़ी- तो चिंता फिर बढ़ गई।

– 8,150 जांच रोज़ कराने का निर्देश, हो रहे हैं बस 3500 तक टेस्ट
–  लक्ष्य से 60 फ़ीसदी कम हो रही है कोरोना की जांच
– ख़बर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में यूपी के ग़ाज़ियाबाद ज़िले के कोरोना टेस्टिंग के आंकड़ों पर आधारित थी
– सवाल है कि क्या सिर्फ़ यूपी के ग़ाज़ियाबाद में ही कोरोना टेस्टिंग लक्ष्य से 60 प्रतिशत कम हो रही है?

ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता। राजधानी दिल्ली से सटे इलाक़े में जब ऐसा हाल था, तो दूरदराज़ के ज़िलों में क्या हाल रहा होगा…? इस पर सहज ही संदेह होता है।

 

ज़ाहिर है कि दोनों ख़बरें विरोधाभासी हैं। एक ही समाचार पत्र में इस तरह की कई ख़बरें रोज़ सामने आती रहती हैं।

– आज के दौर में असल सवाल यह है कि क्या ऐसे मीडिया को संपादकीय समझ की टेस्टिंग नहीं करानी चाहिए?

– बीमार हो चुके मीडिया की टेस्टिंग आख़िर करेगा कौन? भारत में तो मीडिया को अपना इलाज ख़ुद ही करने का अधिकार है!

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