पत्रकारिता में कैसे हो रहा है चिराग़ तले अंधेरा?

आज़ादी के बाद से अभी तक की सभी सरकारें प्रेस की आज़ादी के पक्ष में ही रहती आई हैं। वहीं 1975 में लगाई गई इमरजैंसी के दौर को छोड़ दें, तो हर सरकार और राजनैतिक पार्टी भारत में प्रेस की स्वतंत्रता की ही बात करती आई है। लेकिन क्या आप जानते हैं इस प्रेस की आज़ादी का असल माइने क्या हैं? समाचार पत्र और टीवी न्यूज़ चैनल चलाने वाले मालिकों की आज़ादी या फिर मीडिया कर्म करने वाली पत्रकार बिरादरी की आज़ादी?

आपको मालूम हो कि भारत की आज़ादी की लड़ाई में पत्रकारों ने भी अहम भूमिका निभाई, लेकिन ये बात भी सत्य है कि उस समय भी अख़बार छापने के लिए पैसे की ज़रूरत होती थी, लिहाज़ा पत्र-पत्रिकाएं उन्हीं लोगों ने प्रकाशित कीं, जिनके पास पूंजी थी।
आज मीडिया का बाज़ार बहुत बड़ा है, लिहाज़ा बाज़ार के टोटकों से मीडिया का बच पाना संभव नहीं है। लेकिन ये तो सत्य है कि प्रेस की आज़ादी के जुमले की असली लाभार्थी मालिक नाम की संस्था ही है, पत्रकार नहीं।

वहीं पत्रकारों से जुडी ये समस्याएं सर्व विदित हैं:-

– पत्रकारों की आर्थिक आवश्यकताओं को सुनिश्चित करने के लिए कोई कड़ा कानूनी प्रावधान नहीं है
– सुप्रीम कोर्ट की कड़ाई के बावजूद अख़बारों ने मजीठिया आयोग की सिफ़ारिशें लागू नहीं कीं
– टीवी न्यूज़ चैनलों में भी किसी पत्रकार की नौकरी आनन-फ़ानन में जा सकती है

आपको बता दें कि अख़बारों में काम करने वाले पत्रकारों का वेतन निर्धारित करने के लिए मजीठिया आयोग की सिफ़ारिशें लागू नहीं करनी पड़ें, इसके लिए तमाम तकनीकी तिकड़में लड़ाई गईं। वहीं मीडिया के मालिक प्रेस की स्वतंत्रता की आड़ में किसी भी व्यवस्थागत प्रावधान की धज्जियां उड़ा सकते हैं।  हमारे लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो पत्रकार समाज की भलाई के लिए लड़ता है, वो अपनी भलाई की बात सोच भी नहीं सकता।

असुरक्षित हैं पत्रकार

आपको बता दें कि नौकरी मिलना तो मुश्किल है ही, पत्रकारों की सुरक्षा भी अहम मसला है। पत्रकारों की सुरक्षा का मसला केवल भारत में ही नहीं है, बल्कि दुनिया के ज़्यदातर हिस्सों में पत्रकारों की अपनी सुरक्षा दांव पर होती है।

पत्रकारों की हत्या से जुड़ा मामला

– पिछले एक दशक में हर चौथे दिन दुनिया भर में कहीं न कहीं एक पत्रकार की हत्या की गई है।
– पत्रकारों की हत्या के हर 10 मामलों में से नौ अनसुलझे रह जाते हैं, ज़ाहिर है कि ज़्यादातर मामलों में तंत्र का ही हाथ होता है।
– वर्ष 2019 में पत्रकारों की हत्या के सिर्फ़ 13 प्रतिशत मामले ही सुलझ पाए।

यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार पत्रकारिता सबसे ख़तरनाक व्यवसाय में से एक बन गई है। बता दें कि दुनिया भर में बेहद ताक़तवर लॉबियां भ्रष्टाचार, तस्करी और सभी तरह के अवैध धंधों में लिप्त हैं जिनके ख़िलाफ़ लिखना और बोलना ही पत्रकारों की जान पर भारी पड़ने लगा है। बता दें इसके अलावा राजनीति का बढ़ता अपराधीकरण भी पत्रकारों की असुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार है।

पत्रकारों के लिए सबसे असुरक्षित देशों की लिस्ट में भारत छठवें नंबर पर है

– असुरक्षित देशों की सूची में अफ़ग़ानिस्तान, मैक्सिको, सीरिया, सोमालिया और यमन हमसे आगे हैं।
– 2018-19 में दुनिया भर में 156 पत्रकारों की हत्या कर दी गई।
– वर्ष 2020 में सितंबर महीन तक 39 पत्रकारों को जान से मार डाला गया।

बता दें कि दुनिया भर में लोग ये अपेक्षा तो रखते हैं कि पत्रकार उनके सभी काम करवा दें, लेकिन जब कोई पत्रकार एक झटके में बेरोज़गार कर दिया जाता है, मार दिया जाता है, तब कोई सामाजिक संस्था उसके हक़ की लड़ाई के लिए आगे नहीं आती। ये विड़ंबना नहीं, तो क्या है ?

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