पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों में आग लगी हुई है। राजस्थान और मध्यप्रदेश के कई शहरों में पेट्रोल की क़ीमत सौ रुपये लीटर तक का आंकड़ा छू चुकी है। आमतौर पर लोग इसके लिए केंद्र सरकार को ही घेरते हैं। लेकिन क्या ये बात सही है… विपक्ष के नेता भी इसके लिए केंद्र सरकार को ही कटघरे में खड़ा करते हैं… लेकिन वे ये भूल जाते हैं कि उनकी पार्टियों के शासन वाले राज्यों में भी तेल की क़ीमतें आसमान छू रही हैं और इसके लिए वही ज़िम्मेदार हैं। आइए टॉस की इस रिपोर्ट में तेल की क़ीमतों के गणित और इस पर होने वाली राजनीति की पड़ताल करते हैं।
– अभी देश में पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतें रोज़ तय होती हैं
– अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमतों को इसका आधार माना जाता है
(लेकिन)
– जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतें काफ़ी नीचे गिरी, तब देश में तेल का भाव बहुत नीचे नहीं गिरा
(ये भी जान लीजिए कि)
– भारत में आम आदमी को पेट्रोल-डीज़ल असल मूल्य के क़रीब तीन गुने से ज़्यादा दाम पर मिलते हैं
(इसकी वजह ये है कि)
– केंद्र और राज्य सरकारें पेट्रोल-डीज़ल पर एक्साइज़ ड्यूटी और दूसरे कई उपकर वसूलती हं्
– पेट्रोल पर 60 प्रतिशत से ज़्यादा और डीज़ल पर 55 प्रतिशत से ज़्यादा टैक्स केंद्र और राज्य सरकारें लेती हैं
– केंद्र सरकार पेट्रोल पर प्रति लीटर 32.90 रुपये और डीज़ल पर 31.80 रुपये एक्साइज़ ड्यूटी लेती है
– पेट्रोल पंप मालिक का मुनाफ़ा भी आम आदमी की जेब से ही वसूला जाता है
– पेट्रोल या डीज़ल के असल भाव (क़रीब 33 रुपये) में केंद्र, राज्य सरकारों के हिस्से के अलावा डीलर का मुनाफ़ा भी जुड़ कर बिकता है
(ये भी जान लीजिए कि वित्त आयोग की सिफ़ारिशों के मुताबिक़)
– पेट्रोल-डीज़ल पर केंद्र जो एक्साइज़ ड्यूटी वसूलता है, उसमें से क़रीब 41 प्रतिशत हिस्सा राज्यों को चला जाता है
मतलब ये हुआ कि पेट्रोल और डीज़ल की बिक्री से राज्य अपने लिए भारी भरकम टैक्स तो कमाते ही हैं, केंद्रीय टैक्स में भी उनका हिस्सा होता है। लेकिन विपक्ष लोगों के मन में यही भरता है कि पेट्रोल-डीज़ल की बढ़ती क़ीमतों के लिए केंद्र सरकार ही ज़िम्मेदार है। कांग्रेस की अगुआई वाली मनमोहन सिंह सरकार में प्रणब मुखर्जी जब केंद्र में वित्त मंत्री थे, तब राज्यसभा में उन्होंने यही कहा था कि तेल की क़ीमतों के लिए जनता केंद्र को ही कोसती है, राज्यों को नहीं। अब मोदी सरकार पर निशाना साधने वाले कांग्रेस नेता राहुल गांधी को शायद ये बात याद नहीं होगी।
– जिन राज्यों में पेट्रोल का भाव 100 रुपये लीटर से भी ऊपर पहुंचा है, उनमें राजस्थान भी शामिल है, जहां कांग्रेस की सरकार है
– राहुल गांधी को इतनी ही चिंता है, तो कम से कम राजस्थान और महाराष्ट्र सरकारें वहां के लोगों को टैक्स कम कर राहत दे सकती हैं
– हक़ीक़त यही है कि राजस्थान में इस समय पेट्रोल पर देश में सबसे ज़्यादा टैक्स लिया जा रहा है
– लेकिन ऐसा होगा नहीं, क्योंकि पेट्रोल-डीज़ल से मिलने वाला टैक्स राज्यों की कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा होता है
– केंद्रीय तेल कंपनियां तेल पर टैक्स की कमाई राज्य सरकारों के खाते में सीधे डाल देती हैं, यानी राज्यों को कुछ ख़र्च नहीं करना पड़ता
– लेकिन केंद्र सरकार को पेट्रोल-डीज़ल पर टैक्स वसूलने के लिए वेतन और बुनियादी ढांचे के विकास पर काफ़ी पैसा ख़र्च करना पड़ता है
सवाल ये है कि केंद्र सरकार एक्साइज़ ड्यूटी और दूसरे उपकरों में कटौती कर आम लोगों को राहत क्यों नहीं दे रही है? और मोदी सरकार अगर ऐसा कर दे, तो उसका क्या असर आम आदमी पर पड़ेगा?
– केंद्र बहुत से कल्याणकारी काम करता है, जैसे कमज़ोर वर्ग को सब्सिडी, कर्ज़ माफ़ी, किसान सम्मान निधि, आयुष्मान योजना, एमएसपी पर ख़रीद और सस्ता या मुफ़्त अनाज बांटना इत्यादि
– राज्यों के साथ-साथ देश भर में बुनियादी ढांचे के विकास का काम भी केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी है
– अगर पेट्रोलियम पदार्थों पर केंद्र अपने टैक्स बहुत घटा दे, तो ज़िम्मेदारियों के निर्वाह की गति बहुत कम हो जाएगी
– सब्सिडी इत्यादि ख़त्म करनी पड़ेंगी या फिर उनमें भारी कटौती करनी होगी
– कोई सरकार नहीं चाहेगी कि कल्याणकारी काम कम कर या विकास की गति रोक कर वह जनता के बीच अलोकप्रिय हो जाए
– या फिर टैक्स में आई कमी की भरपाई के लिए केंद्र सरकार को दूसरे टैक्स लगाने पड़ेंगे
– तेल पर टैक्स कम हुए तो कमज़ोर वर्ग को बहुत फ़ायदा हो सकता है, महंगाई भी कम होगी
– लेकिन टैक्स देने वालों की जेब पर बहुत ज़्यादा बोझ पड़ जाएगा, जिसकी क़ीमत किसी भी सरकार को हार के रूप में चुकानी पड़ सकती है
पेट्रोल-डीज़ल के दाम कम करने का एक तरीक़ा और है कि इन्हें जीएसटी के तहत लाया जाए। लेकिन जब तक कल्याण और विकास के काम रोक कर या फिर दूसरे टैक्स बढ़ाकर या फिर टैक्स का दायरा बढ़ा कर आमदनी बरक़रार नहीं रखी जाएगी, तब तक ऐसा होगा नहीं। जीएसटी के दायरे में लाने से तेल पर टैक्स तो कम हो जाएगा, लेकिन राज्य सरकारों की कमाई घट जाएगी। उन्हें उपकर लगाने ही पड़ेंगे। यही वजह है कि
– विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारें भी पेट्रोल-डीज़ल को जीएसटी में लाने का विरोध करती हैं
– पंजाब के सीएम अमरिंदर सिंह पेट्रोल-डीज़ल को जीएसटी में लाने की मांग करते हैं
– लेकिन उसी दिन पंजाब के वित्त मंत्री पेट्रोल-डीज़ल को जीएसटी में लाने का विरोध कर देते हैं
– तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि विपक्ष अपने पांच मुख्यमंत्रियों से जीएसटी में लाने के लिखित मांगपत्र भिजवा दे, तो ऐसा हो सकता है
– लेकिन आज तक विपक्षी पार्टियों की एक भी सरकार की और से इसके बारे में लिखित आग्रह नहीं किया गया है
– जीएसटी काउंसिल की बैठकों में इस पर चर्चा हो चुकी है, लेकिन कोई वित्त मंत्री अभी तक इसके लिए तैयार नहीं हुआ है
भविष्य में एक समस्या और खड़ी हो सकती है।
– पूरी दुनिया में प्रदूषण या फिर उत्पादन में कमी की वजह से पेट्रोलियम पदार्थों पर निर्भरता कम होती जाएगी
– सौर ऊर्जा, बिजली या फिर ऊर्जा के दूसरे अक्षय स्रोतों पर निर्भरता धीरे-धीरे बढ़ती जाएगी
– जब पेट्रोल-डीज़ल की बिक्री घटती जाएगी, तो केंद्र और राज्य सरकारें कमाई बढ़ाने के लिए क्या करेंगी?
– पीएम मोदी के अनुसार मध्यम वर्ग को ऐसी मुश्लिक नहीं होती, अगर पिछली सरकारें ऊर्जा आयात की निर्भरता पर ध्यान देती
– 2019-20 में भारत ने अपनी घरेलू मांग पूरी करने के लिए 85% तेल और 53 % गैस आयात की थी
ज़ाहिर है कि चाहे एनडीए की सरकार हो या यूपीए की या फिर भविष्य में किसी और पार्टी या गठबंधन की, पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतें सिर्फ़ राजनैतिक मुद्दा है। विपक्ष में कोई पार्टी हो, वह केंद्र सरकार के सिर ठीकरा फोड़ती रहेगी। लेकिन समस्या का असल समाधान आख़िर क्या है… सीधी बात है कि ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भरता पाकर ही समस्या से निपटा जा सकता है और ये काम जादू की छड़ी से नही होगा। इसमें वक़्त लगेगा। तत्काल राहत के लिए अगर टैक्स कम किए गए, तो सब्सिडी इत्यादि कम करने के लिए तैयार रहना होगा। अभी जो बहुत बड़ा वर्ग टैक्स पेयर नहीं है, उसे दायरे में लाना होगा।
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