अबे ख़ामोश! कई फ़िल्मों में बोला गया ये डायलॉग बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा को स्थाई पहचान दे गया है। लेकिन जबसे वे भारतीय जनता पार्टी का दामन छोड़कर कांग्रेस में गए हैं, तब से लगता है कि ख़ुद भी ख़ामोश हो गए हैं। बिहार में विधानसभा 2020 की बिसात सजी है, लेकिन बिहारी बाबू वहां कांग्रेस की पिच पर बैटिंग या बॉलिंग करते नज़र नहीं आ रहे हैं। लगता है कि फ़ील्डिंग करना ही अब उनकी सियासी मजबूरी हो गई है। वो भी बाउंड्री वॉल से बाहर खड़े होकर।
बिहार में चुनावी आरोप-प्रत्यारोप का शोर जारी है।कोरोना को लेकर जमकर सियासत हो रही है। बाढ़ को लेकर तमाम विपक्षी दल नीतीश सरकार को पानी पी-पीकर कोस रहे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव की तारीख़ों के ऐलान से पहले बिहार की झोली में ताबड़तोड़ योजनाओं की सौगात भर रहे हैं। पक्ष और विपक्ष में शामिल छोटे दल आंखें तरेर रहे हैं। वे ज्यादा से ज्यादा सीटें झटकने की हर जुगत में लगे हुए हैं। असंतुष्ट नेता बाक़ायदा मुहूर्त निकालकर इधर से उधर, उधर से इधर जाने की क़वायद में जुटे हैं। लेकिन 2019 में बिहारी बाबू शत्रु भैया कांग्रेस में क्या गए, वे तो एकदम ख़ामोश ही हो गए हैं। लोकसभा की पटना साहिब सीट से वे 2019 का चुनाव हार गए थे। उनकी पत्नी पूनम सिन्हा ने लखनऊ से समाजवादी पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा और हार गईं। कांग्रेस में रहते हुए भी शत्रु अपनी पत्नी के लिए चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे, इससे कांग्रेस ने ख़ासी नाराज़गी जताई थी।
कांग्रेस में वंशवाद के ख़िलाफ़ 23 वरिष्ठ नेताओं ने लैटर बम फोड़ा, तब भी शत्रुघ्न सिन्हा कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं दिए। भारतीय जनता पार्टी में रहते हुए, वे बड़ी बेबाकी से नाइत्तफ़ाकी भरे बयान जारी करते रहते थे। लगता है कि सिन्हा साहेब को कांग्रेस में सब कुछ ठीक-ठाक ही दिखाई दे रहा है।
जून, 1992 में नई दिल्ली लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार फिल्म अभिनेता राजेश खन्ना के ख़िलाफ़ बीजेपी के टिकट पर उपचुनाव में उतर कर शत्रुघ्न सिन्हा ने राजनैतिक पारी की शुरुआत की थी। ये सीट लालकृष्ण आडवाणी के छोड़ने की वजह से ख़ाली हुई थी। आणवाणी की सलाह पर ही उन्हें बीजेपी का टिकट भी दिया गया था। लेकिन सिन्हा चुनाव हार गए। चुनाव प्रचार के दौरान हुई खट-पट की वजह से राजेश खन्ना ने इसके बाद मरते दम तक कभी शत्रुघ्न सिन्हा से उनके कोशिशें करने पर भी बात नहीं की। शत्रुघ्न सिन्हा इस बात पर मुखर मलाल जता चुके हैं कि उस चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी उनके पक्ष में प्रचार करने के लिए एक भी सभा में नहीं पहुंचे थे। हालांकि उन्हें तब से ही आडवाणी का भरोसेमंद माना जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार केंद्र में आई, तो शत्रुघ्न को कैबिनेट मंत्री बना कर सम्मान दिया गया।
लेकिन 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से ही शत्रुघ्न सिन्हा के तेवर गर्म होने लगे। अप्रैल, 2019 में कांग्रेस में शामिल होने तक वे मोदी के हर बयान पर पलटवार करते रहे। मीडिया ने उन्हें बीजेपी का अंदरूनी विपक्ष ही मान लिया और उन्होंने भी मोदी और अमित शाह के बयानों पर पलटवार करने में कोई नर्मी नहीं दिखाई।
शत्रुघ्न के कांग्रेस में जाने तक ये सवाल बराबर बना रहा और आज भी बरकरार है कि वे बीजेपी के मौजूदा निजाम से नाराज़ क्यों थे या अब भी हैं। कहा जाता है कि केंद्र में उन्हें मंत्री नहीं बनाए जाने से वे नाराज़ होना शुरू हुए। पार्टी में भी उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं मिली। सूत्रों का कहना है कि शत्रु ने बिहार की तत्कालीन जीतनराम मांझी सरकार से अपने लिए पद्म विभूषण सम्मान की सिफ़ारिश कराई थी, लेकिन मोदी सरकार ने उस पर मुहर नहीं लगाई। इससे भी वे ख़फ़ा हुए। इसके बाद रूठते जाने का सिलसिला शुरू हो गया। उन्होंने राहुल गांधी के ख़िलाफ़ दिए बयानों पर भी वार किया। बीजेपी छोड़ चुके यशवंत सिन्हा के भारत निर्माण मंच पर भी शत्रुघ्न सक्रिय दिखाई दिए, लेकिन बीजेपी ने उन्हें अपनी तरफ़ से बाहर का रास्ता नहीं दिखाया।। आख़िर में उन्होंने ख़ुद ही कांग्रेस का दामन थामने का फ़ैसला किया।
बीजेपी में रहते हुए शत्रुघ्न सिन्हा यशवंत सिन्हा के भारत निर्माण मंच से जुड़े हुए दिखाई देते रहे, लेकिन अजीब सी विडंबना है कि यशवंत सिन्हा आज बिहार विधानसभा चुनाव 2020 को लेकर ख़ासे सक्रिय हैं, उनका मोर्चा योग्य उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारने की बात कर रहा है, उन्होंने बिहार का सघन दौरा भी किया है। लेकिन बीजेपी को हराने का इरादा लेकर कांग्रेस में शामिल हुए शत्रुघ्न सिन्हा अभी तक ख़ामोश ही नज़र आ रहे हैं।
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