संभावनाओं के असमय अंत पर सबको दुख और अफ़सोस होता है। सभी जानना चाहते हैं कि आख़िर सुशांत सिंह राजपूत जैसे कलाकार को जान क्यों गंवानी पड़ी। वो कौन हैं या कौंन से हालात थे, जिन्होंने सुशांत की ज़िंदगी की डोर वेवक़्त काट डाली…इसका पता चलना ही चाहिए। सुशांत की मौत की गुत्थी सुलझाने के लिए महाराष्ट्र और बिहार पुलिस आपस में बुरी तरह उलझ गईं, तो कुछ सवाल उठने लाज़िमी हैं। दोनों राज्यों की पुलिस इस हद तक उलझीं कि आला अफ़सर खुलकर बयानबाज़ी पर उतारू हो गए। बड़ा सवाल ये है कि
एक राज्य की पुलिस को क्या दूसरे राज्य की पुलिस को दुश्मन के तौर पर देखना चाहिए?
भारतीय संविधान पूरे देश में समान रूप से लागू है। हम जानते हैं कि आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था राज्यों का विषय है, इसलिए पुलिस राज्य सरकारों के अधीन रहती है, जबकि केंद्र शासित राज्यों की पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन रहती है। क्योंकि संविधान एक है, आईपीसी यानी भारतीय दंड संहिता और सीआरपीसी यानी दंड प्रक्रिया संहिता पूरे देश पर समान रूप से लागू है, लिहाज़ा सभी राज्यों की पुलिस को अपराध से निपटने के लिए एक समान बर्ताव करने की अनिवार्यता है।
लेकिन सुशांत सिंह राजपूत की जान क्यों गई, उन्होंने आत्महत्या की, तो इसके लिए किसी ने उकसाया या फिर ये मर्डर का मामला है, इन सवालों से जूझते हुए महाराष्ट्र पुलिस और बिहार पुलिस का रुख़ अलग-अलग क्यों है? महाराष्ट्र पुलिस ने जांच शुरू की, केस से जुड़े सेलेब्रिटीज़ के बयान लेने शुरू किए, लेकिन कोई एफ़आईआर दर्ज नहीं की… क्या ऐसा करना जांच प्रक्रिया को सही रूप से शुरू करने के लिए ज़रूरी नहीं था?… क्या इससे महाराष्ट्र पुलिस की मंशा पर सवाल खड़े नहीं होते?
सुशांत के पिता की अर्ज़ी पर बिहार पुलिस ने बाक़ायदा एफ़आईआर दर्ज की और कुछ अफ़सर जांच के लिए मुंबई पहुंचे, तो वहां की पुलिस ने जांच में कोई मदद नहीं की। उल्टे रास्ते में रोड़े अटकाने का काम किया। इतना ही नहीं, बिहार के एक आईपीएस अधिकारी को कोरोना प्रोटोकॉल के नाम पर क्वारंटाइन कर दिया गया। ये काम मुंबई नगर पालिका ने किया। जान लें कि नगर पालिका पुलिस के अधीन नहीं होती। एक पल के लिए मान लें कि दोनों राज्यों की पुलिस अपने-अपने क्षेत्राधिकार के लिए लड़ रही थी, तो फिर सवाल है कि बिहार पुलिस की जांच में रोड़ा अटकाने के लिए नगर पालिका यानी प्रशासन कहां से कूद पड़ा… साफ़ है कि महाराष्ट्र सरकार के इशारे पर ऐसा किया गया होगा… और यही मामले को बहुत संवेदनशील बना देता है…
आज़ाद भारत में राज्य सरकारें अपने निजी और कुटिल निहितार्थ साधने के लिए अगर पुलिस या फिर प्रशासनिक मशीनरी का इस्तेमाल करने लगेंगी, तो फिर ये संविधान सम्मत नहीं हो सकता। ऐसा होना राजशाही के दौर की याद दिलाता है, जब एक-दूसरे पर धाक जमाने के लिए राजाओं की सेनाएं भिड़ जाया करती थीं। मुंबई पुलिस तो महाराष्ट्र सरकार के अधीन है ही, मुंबई नगर पालिका का मेयर पद भी शिवसेना नेता किशोरी पेडनेरकर के पास ही है। लेकिन क्या सत्ता हासिल होने पर संवैधानिक व्यवस्थाओं का अपहरण निजी हित में किया जा सकता है?
अब जबकि सुप्रीम कोर्ट भी इस बात से सहमति जता चुका है कि सुशांत सिंह राजूपत की जान कैसे और किन परिस्थितियों में गई, इसका पता लगना ही चाहिए, तब क्या अब मुंबई पुलिस सीबीआई जांच में पूरा सहयोग करेगी? फिलहाल ये सवाल तो मुंह खोले खड़ा ही है।
वर्ष 2019 में शारदा चिटफंड घोटाले की जांच के सिलसिले में कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव राय के आवास पर गए सीबीआई के पांच अधिकारियों को पशिम बंगाल पुलिस ने हिरासत में ले लिया था। तब भी संवैधानिक दायरों को लेकर बहुत चर्चा हुई थी। राजीव राय के ख़िलाफ़ सीबीआई कार्रवाई के विरोध में सीएम ममता बैनर्जी धरने तक पर बैठ गईं। टॉस का मानना है कि अपराध पूरी तरह बंद नहीं होंगे, उनकी जांच होगी और आगे की न्यायिक कार्यवाही भी होती रहेगी। लेकिन इसमें राजनैतिक लिप्तता या फिर व्यक्तिगत रसूख़ की संलिप्तता का उजागर होना संवैधानिक प्रावधानों के साथ भद्दा मज़ाक ही कहा जाएगा। क्या ये होता ही रहेगा?
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